आजकल की दुनिया का सबसे घटिया शब्द है competition । आजकल की व्यवस्था में हर जगह competition हो गया है । पहले पढ़ाई में competition फिर job के लिये competition फिर शादी के लिए competition । जिंदगी में सबसे आगे निकलने का competition । एक मेरा जैसा इंसान जो इस complex environment के हर competition में last आता है उसके लिये क्या इस पूंजीवादी व्यवस्था में कोई जगह है या नही । यह survival of fittest की westarn theory से मैं त्रस्त हो गया हूँ । अधिकतर लोग मेरे जैसे है उनको इस competition से अब हार मान कर अपनी जिंदगी अपने अनुसार व्यतीत करनी शुरू कर देनी चाहिये । सब तरह के competition को नकार कर भारतीय दर्शन survival of all जो कि प्रकृति का भी सिद्धान्त है उस पर आ जाना चाहिये । जैसे जंगल में सब के लिये जगह है कमजोर के लिये भी और शक्तिशाली के लिये भी , शहर में कमजोरों के लिये जगह कयों नहीं हैं ? मेरे जैसे लोग जिन्होंने केवल अपनी जिंदगी के 50 -60 इस संसार में निकालने हैं जिनको किसी को नहीं हराना जो बिना किसी fame के जीना चाह तें हैं उनके लिये इस पूंजीवादी व्यवस्था में जगह क्यों नहीं है ? जबकि सनातन भारत में सबके लिये जगह थी कमजोर लोग के साथ साथ नदियों पहाड़ों समुद्रों , चींटियों , सांपो सब के लिये जगह थी । लेकिन आजकल की पूंजीवादी व्यवस्था में केवल और केवल तगड़े के लिये जगह है। हर चीज़ के लिये पूरी तरह मार काट मची हुई । जो चीज़ें सनातन व्यवस्था में बहुत मामूली थी आजकल की पूंजीवादी व्यवस्था में उसके लिये पूरी ऐड़ी छोटी का जोर लगना पड़ता है । उदहारण के लिये शादी । आजकल शादी करवाना और उसको मेन्टेन रखना सबसे मुश्किल है । ऐसा क्यों है कहीं ना कहीँ इसके लिये पूंजीवादी व्यवस्था जिम्मेदार है जो केवल और केवल आपके competition में भागने पर टिकी हुई है । जिस दिन आप इस competition नाम की कुत्ता race से बाहर आ गए । आप जीत जायेगें और पूंजीवादी व्यवस्था हार जाएगी । इसके लिये केवल आपको उपभोग कम करना है और काम कम करना है । competition से बाहर निकलिए सह अस्तित्व के सनातन सिद्धान्त को अंगीकार करें ।

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