हमारी संस्कृति में गेहूँ कहाँ है । लोक गीतों में बाजरा है जैसे 'बाजरे दा सिट्टा वे मैं तली ते मरोडिया ,तुरिया जांदा माहिया असा गली विचों मोडिया ' विजयदशमी त्यौहार पर हम जों बीजते हैं गेहूँ नहीं पिंड हमेशा जों के आटे के बनते हैं गेहुँ के नहीं । दुल्हन की विदाई के समय दुल्हन चावल फेंकती थी वह भी बिना पोलिश हुये गेहुँ नहीं । फिर यह गेहुँ हमारे भोजन में कैसे घुस गया । शोध का विषय है । क्या यह तो नहीं कि गेहुँ food माफिया,मेडिकल माफिया को सूट करता है बाज़रा या जों नहीं। क्या 1960 की कृत्रिम गेहुँ की कमी दिखाकर भारत की कृषि व्यवस्था और भोजन व्यवस्था जानबूझकर तब्दील की गई । क्योंकि 1960 के लगभग ही कृषि और अनाज में सरकारी दखल बढ़ता गया । 1960 के लगभग ही fci आया ,agricultural को समाप्त करने के लिये agricultural development यूनिवर्सिटी खोली गईं । जिसमें घटिया बीज तैयार किये गये जो जहर के बिना बढ़ते ही नहीं थे । 1960 के दशक में Apmc act आया जिससे मण्डियों के माध्यम से कृषि को कंट्रोल कर लिया गया । हरित भ्रांति भी उस गेहुँ की कमी का आधार बनाकर रची गई जिसका उपभोग भारतीय समाज बहुत कम करता था ।

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